मौत की परवाह
भय के काजल को सजा आँखों में,
आँखें स्याह कर ली,
चार दीवारी में पर्वत के शिखर की
चाह कर ली,
ले कर समंदर दिल में अपने,
बूँद को तरसा किए,
और ज़िन्दगी भर क्या किया,
बस मौत की परवाह कर ली।
जब गया मौसम बदल,
हर बार आंधी साथ आई,
तब यूँ किया, मंदिर गए,
माला जपा, घंटी बजाई,
जो डट गए राहों में,
फिर चाहे भला, जैसी बला हो,
बस देखते उनको रहे,
जो किस्मत की देते थे दुहाई।
भीड़ थी जाती जिधर,
उस ही तरफ की राह कर ली,
और ज़िन्दगी भर क्या किया,
बस मौत की परवाह कर ली।
- ऋषि चंद्र