Friday, May 17, 2019

मौत की परवाह 

भय के काजल को सजा आँखों में,
आँखें स्याह कर ली,
चार दीवारी में पर्वत के शिखर की 
चाह कर ली,
ले कर समंदर दिल में अपने,
बूँद को तरसा किए,
और ज़िन्दगी भर क्या किया,
बस मौत की परवाह कर ली।  

जब गया मौसम बदल,
हर बार आंधी साथ आई,
तब यूँ किया, मंदिर गए,
माला जपा, घंटी बजाई,
जो डट गए राहों में,
फिर चाहे भला, जैसी बला हो,
बस देखते उनको रहे,
जो किस्मत की देते थे दुहाई।

भीड़ थी जाती जिधर,
उस ही तरफ की राह कर ली,
और ज़िन्दगी भर क्या किया,
बस मौत की परवाह कर ली। 

- ऋषि चंद्र 

Saturday, May 4, 2019

ज़िन्दगी

उठने दे दिल में  आज, अरमानों की लहरों को,
तुझ से ही सब है, बिन तेरे ये सब बेमानी है,
कुछ भी नहीं है वक़्त, स्याही है इरादों की,
और ज़िन्दगी इन चंद खुशियों की कहानी है...

- ऋषि चंद्र 

Saturday, March 15, 2014

ख़ूबसूरत है… 
 
 
बेताब आँखें ढूंढती तेरी ही सूरत है,
तू मेरी आशिकी से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है… 
 
बंजर बने गुलशन, छू कर तू गुज़र जाये अगर,
मौत से हो इश्क़, के तेरे नाम पे आए अगर,
घायल को मरहम की नहीं तेरी ज़रूरत है,
तू मेरी आशिकी से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है… 
 
पत्थर को भी दिल पे नहीं रहता कोई काबू,
के जिसको मुस्कुराकर देखने पर आते हैं आँसू ,
तू खुश्बू में लिपटी प्यार कि वो आखिरी ख़त है… 
तू मेरी आशिकी से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है… 
 
न हूँ हमसाज, ना आशिक ही, ना दिलदार हूँ तेरा...
के हो कर दफ्न  मेरे रूह में असरार है मेरा..
मेरे बेसब्र दिल कि इक अकेली तू ही हसरत है… 
तू मेरी आशिकी से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है…  
 
बेताब आँखें ढूंढती तेरी ही सूरत है,
तू मेरी आशिकी से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है…
 
 
- ऋषि चन्द्र 

Wednesday, March 5, 2014


घर तो हो... 

तबाह क्या करे, जो खुदाया से न वो माँगे
के रेहमत पर यकीन रखे, मगर कोई असर तो हो…
मायूसियों के सिलसिले बस ये बयां कर दे…
सच्ची इबादत किसलिए? कुछ खोने का डर तो हो.…

प्यासा क्या करे, अगर बंजर में ना चले
हो के बेहोश गिर जाए, कोई राहत का दर तो हो…
ऎ  दूर तक फैली हुई वीरानियाँ कह दे
मेरा ठिकाना किस जगह? कोई अपना सा घर तो हो..



Tuesday, November 26, 2013

शोर में कुछ सुनाई नहीं देता,
भीड़ में कुछ दिखाई नहीं देता,
तनहाई और गहराती जाती है देखिये,
मुझे जीते जाने पे कोई बधाई नहीं देता ..  

Saturday, July 6, 2013

ढूँढ लेंगे
एक दिन…

एक दिन…. 
वीरानियों में …. 
तनहाइयों  में ….
एक हम होंगे वहां जब बेसहारे….
हम क्षुधा के नाम के सारे निवाले
ढूँढ लेंगे ...


एक दिन...
चलते सफ़र में...
बूढ़े नज़र में...
याद जब आएँगे  वो किस्से पुराने...
नम  निगाहों को हँसाने के बहाने 
ढूँढ लेंगे ...


एक दिन...
थक कर गिरेंगे...
तिल तिल मरेंगे....
जब बहते हुए नैय्या लगेगी उस किनारे...
हम यामिनी में दीप की उस रौशनी को
ढूँढ लेंगे...

Sunday, May 12, 2013

माँ  
 
माटी चबाता, भागता मैं घर-द्वारे,
और छरी ले कर मुझे माँ ढूँढती थी । 
 डांट खा कर आँसुओं के धार बहते,
गोद में ले कर मुझे फिर चूमती थी ॥  

हालत बिगड़ जाती किताबें देख कर जब,
आँखें बड़ी कर के मुझे वो देखती थी। 
हुल्लड़ मचा कर उस के आँचल में ही छिपता,
सारी शिकायत माँ बिचारी झेलती थी ॥

हर स्वाद फीका आज है, भूखा बहुत हूँ ,
ऐसी क्षुधा मुझको नहीं तब घेरती थी , 
प्यार से मुझ को खिला कर दूध-रोटी,
हाथ मेरे सिर पे जब तू फेरती थी ॥ 

-ऋषि चन्द्र